Thursday, 7 January 2021

महाभारत में प्रथम किसका नाम है ?

                                                  चंद्रवंश से कुरुवंश तक उत्पत्ती


‌पुराणों के अनुसार ब्रह्मा जी  से अत्रि , अत्रि से चंद्रमा, चंद्रमा से बुध और बुध से इलानन्दन पुरुरवा का जन्म हुआ। पुरुरवा से आयु , आयु से राजा नहुष और नहुष से ययाति का जन्म हुआ। ययाति से पुरु हुए। पुरु वंश भरत और भरत के कुल में राजा कुरु हुए। कुरु के वंश में शांतनु का जन्म हुआ। शांतनु से गंगा नंदन भीष्म उत्पन्न हुए। उनके दो भाई और थे। चित्रांगद और विचित्रवीर्य। ये शांतनु से  सत्यवती के गर्भ से उत्पन्न हुए। शांतनु के स्वर्गलोक चले जाने के कारण भीष्म ने अविवाहित रहकर अपने भाई विचित्रवीर्य के राज्य का पालन किया। भीष्म महाभारत के प्रमुख पात्रों में से एक है।  अपने पिता को दिये गये वचन  के कारण इन्होंने आजीवन ब्रम्हचर्य का व्रत लिया था। इन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान भी प्राप्त था।

एक बार हस्तिनापुर नरेश दुष्यंत आखेट खेलने वन में गये।  जिस वन में शिकार करने के लिए गए थे। उसी वन में ही कण्व ऋषि का आश्रम था। कण्व ऋषि के दर्शन करने के लिए महराज दुष्यंत उनके आश्रम पहुंचे। पुकार लगाने पर एक अति लावण्य मत  कन्या ने आश्रम  से निकलकर कहा , हे राजन्!  महर्षि तो तीर्थ यात्रा में गये हैं।  किंतु आपका इस आश्रम में स्वागत है। उस कन्या को  देखकर महराज दुष्यंत ने पूछा 'बालिके'! आप कौन है? बालिका ने कहा , मेरा नाम शकुंतला है। उस कन्या की बात को सुनकर महाराज दुष्यंत आश्चर्यजनक  होकर बोले, " महर्षि तो आजन्म ब्रम्हचारी है, फिर आप उनकी पुत्री कैसे हुई।" उनके इस प्रश्न के उत्तर में शकुंतला ने कहा , "वास्तव में मेरे माता-पिता मेनका और विश्वामित्र है। मेरी माता ने मुझे  मेरे जन्म होते ही छोड़ दिया था। जहां पर शकुंत पक्षी ने मेरी रक्षा की। इसलिए मेरा नाम क्ष शकुंतला पड़ा।  उसके बाद कण्व ऋषि की दृष्टि मुझ पर पड़ी। और वे मुझे अपने आश्रम  में लेकर आते।  उन्होंने ने ही मेरा भरण पोषण किया जन्म देने वाला, पोषण करने वाला तथा अन्न देने वाला । ये तीनों ही पिता कहे जाते हैं। इस तरह कण्व ऋषि मेरे पिता हुए।

  शकुंतला का विवाह



 शकुंतला के वचनों को सुनकर महाराज दुष्यंत ने कहा हे शकुंतले! तुम क्षत्रिय कन्या हो। तुम्हारे सौंदर्य को देखकर मैं अपना हृदय तुम्हें अर्पित कर चुका हूं। यदि तुम्हें किसी भी प्रकार की आपत्ति नहीं है तो मैं तुमसे विवाह करना चाहता हूं। शकुंतला भी महराज दुष्यंत पर आकर्षित हो चुकी थी। अतः उसने अपनी पत्नी स्वकृति प्रदान कर दी। दोनों ने गंधर्व विवाह कर लिया। कुछ काल महराज दुष्यंत ने  शकुंतला के साथ विहार करते हुए वन में व्यतीत कर रहे थे। फिर एक दिन वे शकुंतला से बोले हे प्रियतमे! मुझे अब राज्यकार्य देखने के लिए हस्तिनापुर जाना होगा। महर्षि कण्व के तीर्थ यात्रा से लौट आने पर मैं तुम्हें यहां से विदा कर के राजभवन ले जाऊंगा। इतना कहकर महराज ने शकुंतला को प्रेम के प्रतीक के रूप में अपनी स्वर्ण मुद्रिका दी। और हस्तिनापुर चले गए। 

 दुर्वासा ऋषि का अपमान



‌ एक दिन उसके आश्रम में दुर्वासा ऋषि पधारे। महराज दुष्यंत के विरह में लीन के कारण शकुंतला को उनके आगमन का ज्ञान भी नहीं हुआ। और उसने  दुर्वासा ऋषि का यथोचित स्वागत सत्कार नहीं किया। दुर्वासा ऋषि ने इसे अपना अपमान समझा । और क्रोधित हो गए,  बोले- मैं तुम्हें श्राप देता हूं कि तू जिस किसी का ध्यान में लीन होकर तूने मेरा निरादर किया है, वह तुझे भूल जायेगा। दुर्वासा ऋषि के श्राप को सुनकर शकुंतला का ध्यान टूटा। और वह उसके चरणों में गिरकर क्षमा - प्रार्थना की। शकुंतला के क्षमा - प्रार्थना। से द्रवित होकर दुर्वासा ऋषि ने कहा। " अच्छा तेरे पास उसका कोई प्रेम चिन्ह होगा।  तो उस चिन्ह को देख उसे तेरी स्मृति हो आयेगी।

‌प्रेम चिन्ह

‌महराज दुष्यंत के सहवास से शकुंतला गर्भवती हो गई। कुछ काल पश्चात कण्व ऋषि के तीर्थ यात्रा से  लौटे तब शकुंतला ने उन्हें महराज दुष्यंत के बारे में बताया। इस पर महर्षि कण्व ने कहा ," पुत्री"
   विवाहित कन्या का पिता के घर में रहना उचित नहीं है।  इतना कहकर महर्षि कण्व ने शकुंतला को अपने शिष्यों के साथ हस्तिनापुर भिजवा दिया।  मार्ग में एक सरोवर में  आचमन करते समय महराज दुष्यंत की दी हुई शकुंतला की अंगूठी , जो कि प्रेम चिन्ह थी।  सरोवर में गिर गई। उस अंगूठी को एक मछली निगल गई। महराज दुष्यंत के पास पहुंचकर कण्व ऋषि के शिष्यों ने शकुंतला को उनके सामने खड़े कर के कहा,  महराज  शकुंतला आपकी पत्नी है , इसे आप स्वीकार करें।  महराज तो दुर्वासा ऋषि के श्राप से शकुंतला को भूल गया था।  अतः उसने शकुंतला  स्वीकार नहीं किया। और उस पर कुलटा होने का लांक्षन लगाया। शकुंतला के अपमान होते  ही  आकाश में जोरों की बिजली कड़क उठी। और सबके सामने उसकी माता मेनका उसे उठा ले गई।
जिस मछली ने शकुंतला की अंगूठी को निगल लिया था।  एक दिन वह एक मछुआरे के जाल में आ फंसी। 

जब मछुआरे ने उसको काटा तो उसके पेट में एक अंगूठी मिली। मछुआरे ने उस अंगूठी को महराज दुष्यंत को भेंट स्वरूप प्रदान कर दिया। अंगूठी को देखते ही दुष्यंत को शकुंतला का स्मरण हो आया। और वे अपने कृत्य पर पश्चताप करने लगे। महराज ने शकुंतला को बहुत ढुंढ़वाया। परंतु कुछ पता नहीं चला। कुछ दिनों बाद देवराज इन्द्र के निमंत्रण पाकर देवासुर संग्राम में उसकी सहायता करने के लिए गए। संग्राम विजय प्राप्त करने के पश्चात जब वो आकाश मार्ग से हस्तिनापुर लौट रहे थे, तो मार्ग में उन्हें कश्यप ऋषि का आश्रम  दृष्टिगत हुआ। उनके दर्शनों के लिए वे वहां रुक गये। आश्रम में एक सुंदर बालक एक भयंकर सिंह के साथ खेल रहा था। मेनका ने शकुंतला को कश्यप ऋषि के पास लाकर छोड़ा था। तथा वह बालक

शकुंतला का ही पुत्र था। उस बालक को देखकर महराज के हृदय में प्रेम की भावना उमड़ आयी। वे उसे गोद में उठाने के लिए आगे बढ़े शकुंतला की सखी चिल्ला उठी, हे भद्र पुरुष! आप इस बालक को न छुएं। अन्यथा उसकी भुजा में बंधा काला डोर सांप बनकर आपको डस लेगा। यह सुनकर भी दुष्यंत स्वयं न रोक सके। और बालक को अपने गोद में उठा लिया। सखी को ज्ञात था कि जब भी उसके पिता उसे गोद में लें , तो डोर पृथ्वी में गिर जायेगा। सखी प्रसन्न होकर समस्त वृतांत शकुंतला को सुनाई। शकुंतला महराज दुष्यंत के पास आयी। महराज ने शकुंतला को पहचान लिया। उन्होंने अपने कृत्य के लिए शकुंतला क्षमा मांगी। और कश्यप ऋषि की आज्ञा लेकर उसे उसके पुत्र सहित हस्तिनापुर ले गये। महराज दुष्यंत और उसके पुत्र का नाम भरत था। बाद में वे  भरत महान प्रतापी सम्राट बनें।

यीशु का वचन

 यीशु का वचन: दूसरों को दोषी ठहराने के प्रति

7
1 “दूसरों पर दोष लगाने की आदत मत डालो ताकि तुम पर भी दोष न लगाया जाये। 
2 क्योंकि तुम्हारा न्याय उसी फैसले के आधार पर होगा, जो फैसला तुमने दूसरों का न्याय करते हुए दिया था। और परमेश्वर तुम्हें उसी नाप से नापेगा जिससे तुमने दूसरों को नापा है।
3 “तू अपने भाई बंदों की आँख का तिनका तक क्यों देखता है? जबकि तुझे अपनी आँख का लट्ठा भी दिखाई नहीं देता। 
4 जब तेरी अपनी आँख में लट्ठा समाया है तो तू अपने भाई से कैसे कह सकता है कि तू मुझे तेरी आँख का तिनका निकालने दे। 
5 ओ कपटी! पहले तू अपनी आँख से लट्ठा निकाल, फिर तू ठीक तरह से देख पायेगा और अपने भाई की आँख का तिनका निकाल पायेगा।
6 “कुत्तों को पवित्र वस्तु मत दो। और सुअरों के आगे अपने मोती मत बिखेरो। नहीं तो वे सुअर उन्हें पैरों तले रौंद डालेंगे। और कुत्ते पलट कर तुम्हारी भी धज्जियाँ उड़ा देंगे।
जो कुछ चाहते हो, उसके लिये परमेश्वर से प्रार्थना करते रहो
7 “परमेश्वर से माँगते रहो, तुम्हें दिया जायेगा। खोजते रहो तुम्हें प्राप्त होगा खटखटाते रहो तुम्हारे लिए द्वार खोल दिया जायेगा। 
8 क्योंकि हर कोई जो माँगता ही रहता है, प्राप्त करता है। जो खोजता है पा जाता है और जो खटखटाता ही रहता है उसके लिए द्वार खोल दिया जाएगा।
9 “तुम में से ऐसा पिता कौन सा है जिसका पुत्र उससे रोटी माँगे और वह उसे पत्थर दे? 
10 या जब वह उससे मछली माँगे तो वह उसे साँप दे दे। बताओ क्या कोई देगा? ऐसा कोई नहीं करेगा। 
11 इसलिये यदि चाहे तुम बुरे ही क्यों न हो, जानते हो कि अपने बच्चों को अच्छे उपहार कैसे दिये जाते हैं। सो निश्चय ही स्वर्ग में स्थित तुम्हारा परम-पिता माँगने वालों को अच्छी वस्तुएँ देगा।
व्यवस्था की सबसे बड़ी शिक्षा
12 “इसलिये जैसा व्यवहार अपने लिये तुम दूसरे लोगों से चाहते हो, वैसा ही व्यवहार तुम भी उनके साथ करो। व्यवस्था के विधि और भविष्यवक्ताओं के लिखे का यही सार है।
स्वर्ग और नरक का मार्ग
13 “सूक्ष्म मार्ग से प्रवेश करो। यह मैं तुम्हें इसलिये बता रहा हूँ क्योंकि चौड़ा द्वार और बड़ा मार्ग तो विनाश की ओर ले जाता है। बहुत से लोग हैं जो उस पर चल रहे हैं। 
14 किन्तु कितना सँकरा है वह द्वार और कितनी सीमित है वह राह जो जीवन की ओर जाती है। बहुत थोड़े से हैं वे लोग जो उसे पा रहे हैं।
कर्म ही बताते हैं कि कौन कैसा है
15 “झूठे भविष्यवक्ताओं से बचो! वे तुम्हारे पास सरल भेड़ों के रूप में आते हैं किन्तु भीतर से वे खूँखार भेड़िये होते हैं। 
16 तुम उन्हें उन के कर्मो के परिणामों से पहचानोगे। कोई कँटीली झाड़ी से न तो अंगूर इकट्ठे कर पाता है और न ही गोखरु से अंजीर। 
17 ऐसे ही अच्छे पेड़ पर अच्छे फल लगते हैं किन्तु बुरे पेड़ पर तो बुरे फल ही लगते हैं। 
18 एक उत्तम वृक्ष बुरे फल नहीं उपजाता और न ही कोई बुरा पेड़ उत्तम फल पैदा कर सकता है। 
19 हर वह पेड़ जिस पर अच्छे फल नहीं लगते हैं, काट कर आग में झोंक दिया जाता है। 
20 इसलिए मैं तुम लोगों से फिर दोहरा कर कहता हूँ कि उन लोगों को तुम उनके कर्मों के परिणामों से पहचानोगे।
21 “प्रभु-प्रभु कहने वाला हर व्यक्ति स्वर्ग के राज्य में नहीं जा पायेगा बल्कि वह जो स्वर्ग में स्थित मेरे परम पिता की इच्छा पर चलता है, वही उसमें प्रवेश पायेगा। 
22 उस महान दिन बहुत से मुझसे पूछेंगे ‘प्रभु! हे प्रभु! क्या हमने तेरे नाम से भविष्यवाणी नहीं की? क्या तेरे नाम से हमने दुष्टात्माएँ नहीं निकालीं और क्या हमने तेरे नाम से बहुत से आश्चर्य कर्म नहीं किये?’ 
23 तब मैं उनसे खुल कर कहूँगा कि मैं तुम्हें नहीं जानता, ‘अरे कुकर्मियों, यहाँ से भाग जाओ।’
एक बुद्धिमान और एक मूर्ख
24 “इसलिये जो कोई भी मेरे इन शब्दों को सुनता है और इन पर चलता है उसकी तुलना उस बुद्धिमान मनुष्य से होगी जिसने अपना मकान चट्टान पर बनाया, 
25 वर्षा हुई, बाढ़ आयी, आँधियाँ चलीं और यह सब उस मकान से टकराये पर वह गिरा नहीं। क्योंकि उसकी नींव चट्टान पर रखी गयी थी।
26 “किन्तु वह जो मेरे शब्दों को सुनता है पर उन पर आचरण नहीं करता, उस मूर्ख मनुष्य के समान है जिसने अपना घर रेत पर बनाया। 
27 वर्षा हुई, बाढ़ आयी, आँधियाँ चलीं और उस मकान से टकराईं, जिससे वह मकान पूरी तरह ढह गया।”
28 परिणाम यह हुआ कि जब यीशु ने ये बातें कह कर पूरी कीं, तो उसके उपदेशों पर लोगों की भीड़ को बड़ा अचरज हुआ। 
29 क्योंकि वह उन्हें यहूदी धर्म नेताओं के समान नहीं बल्कि एक अधिकारी के समान शिक्षा दे रहा था।

Tuesday, 5 January 2021

दान की शिक्षा (बाईबिल)

 दान की शिक्षा

6
1 “सावधान रहो! परमेश्वर चाहता है, उन कामों का लोगों के सामने दिखावा मत करो नहीं तो तुम अपने परम-पिता से, जो स्वर्ग में है, उसका प्रतिफल नहीं पाओगे।
2 “इसलिये जब तुम किसी दीन-दुःखी को दान देते हो तो उसका ढोल मत पीटो, जैसा कि आराधनालयों और गलियों में कपटी लोग औंरों से प्रशंसा पाने के लिए करते हैं। मैं तुमसे सत्य कहता हूँ कि उन्हें तो इसका पूरा फल पहले ही दिया जा चुका है। 
3 किन्तु जब तू किसी दीन दुःखी को देता है तो तेरा बायाँ हाथ न जान पाये कि तेरा दाहिना हाथ क्या कर रहा है। 
4 ताकि तेरा दान छिपा रहे। तेरा वह परम पिता जो तू छिपाकर करता है उसे भी देखता है, वह तुझे उसका प्रतिफल देगा।
प्रार्थना का महत्व
5 “जब तुम प्रार्थना करो तो कपटियों की तरह मत करो। क्योंकि वे यहूदी आराधनालयों और गली के नुक्कड़ों पर खड़े होकर प्रार्थना करना चाहते हैं ताकि लोग उन्हें देख सकें। मैं तुमसे सत्य कहता हूँ कि उन्हें तो उसका फल पहले ही मिल चुका है। 
6 किन्तु जब तू प्रार्थना करे, अपनी कोठरी में चला जा और द्वार बन्द करके गुप्त रूप से अपने परम-पिता से प्रार्थना कर। फिर तेरा परम-पिता जो तेरे छिपकर किए गए कर्मों को देखता है, तुझे उन का प्रतिफल देगा।
7 “जब तुम प्रार्थना करते हो तो विधर्मियों की तरह यूँ ही निरर्थक बातों को बार-बार मत दुहराते रहो। वे तो यह सोचते हैं कि उनके बहुत बोलने से उनकी सुन ली जायेगी। 
8 इसलिये उनके जैसे मत बनो क्योंकि तुम्हारा परम-पिता तुम्हारे माँगने से पहले ही जानता है कि तुम्हारी आवश्यकता क्या है। 
9 इसलिए इस प्रकार प्रार्थना करो:
‘स्वर्ग धाम में हमारे पिता,
तेरा नाम पवित्र रहे।
10 जगत में तेरा राज्य आए।
तेरी इच्छा जैसे स्वर्ग में पूरी होती है वैसे ही पृथ्वी पर भी पूरी हो।
11 दिन प्रतिदिन का आहार तू आज हमें दे।
12 अपराधों को क्षमा दान कर
जैसे हमने अपने अपराधी क्षमा किये।
13 हमें परीक्षा में न ला
परन्तु बुराई से बचा।’
14 यदि तुम लोगों के अपराधों को क्षमा करोगे तो तुम्हारा स्वर्ग-पिता भी तुम्हें क्षमा करेगा। 
15 किन्तु यदि तुम लोगों को क्षमा नहीं करोगे तो तुम्हारा परम-पिता भी तुम्हारे पापों के लिए क्षमा नहीं देगा।
उपवास की व्याख्या
16 “जब तुम उपवास करो तो मुँह लटकाये कपटियों जैसे मत दिखो। क्योंकि वे तरह तरह से मुँह बनाते हैं ताकि वे लोगों को जतायें कि वे उपवास कर रहे हैं। मैं तुमसे सत्य कहता हूँ उन्हें तो पहले ही उनका प्रतिफल मिल चुका है। 
17 किन्तु जब तू उपवास रखे तो अपने सिर पर सुगंध मल और अपना मुँह धो। 
18 ताकि लोग यह न जानें कि तू उपवास कर रहा है। बल्कि तेरा परम-पिता जिसे तू देख नहीं सकता, देखे कि तू उपवास कर रहा है। तब तेरा परम पिता जो तेरे छिपकर किए गए सब कर्मों को देखता है, तुझे उनका प्रतिफल देगा।
परमेश्वर धन से बड़ा है
19 “अपने लिये धरती पर भंडार मत भरो। क्योंकि उसे कीड़े और जंग नष्ट कर देंगे। चोर सेंध लगाकर उसे चुरा सकते हैं। 
20 बल्कि अपने लिये स्वर्ग में भण्डार भरो जहाँ उसे कीड़े या जंग नष्ट नहीं कर पाते। और चोर भी वहाँ सेंध लगा कर उसे चुरा नहीं पाते। 
21 याद रखो जहाँ तुम्हारा भंडार होगा वहीं तुम्हारा मन भी रहेगा।
22 “शरीर के लिये प्रकाश का स्रोत आँख है। इसलिये यदि तेरी आँख ठीक है तो तेरा सारा शरीर प्रकाशवान रहेगा। 
23 किन्तु यदि तेरी आँख बुरी हो जाए तो तेरा सारा शरीर अंधेरे से भर जायेगा। इसलिये वह एकमात्र प्रकाश जो तेरे भीतर है यदि अंधकारमय हो जाये तो वह अंधेरा कितना गहरा होगा।
24 “कोई भी एक साथ दो स्वामियों का सेवक नहीं हो सकता क्योंकि वह एक से घृणा करेगा और दूसरे से प्रेम। या एक के प्रति समर्पित रहेगा और दूसरे का तिरस्कार करेगा। तुम धन और परमेश्वर दोनों की एक साथ सेवा नहीं कर सकते।
चिंता छोड़ो
25 “मैं तुमसे कहता हूँ अपने जीने के लिये खाने-पीने की चिंता छोड़ दो। अपने शरीर के लिये वस्त्रों की चिंता छोड़ दो। निश्चय ही जीवन भोजन से और शरीर कपड़ों से अधिक महत्वपूर्ण हैं। 
26 देखो! आकाश के पक्षी न तो बुआई करते हैं और न कटाई, न ही वे कोठारों में अनाज भरते हैं किन्तु तुम्हारा स्वर्गीय पिता उनका भी पेट भरता है। क्या तुम उनसे कहीं अधिक महत्वपूर्ण नहीं हो? 
27 तुम में से क्या कोई ऐसा है जो चिंता करके अपने जीवन काल में एक घड़ी भी और बढ़ा सकता है?
28 “और तुम अपने वस्त्रों की क्यों सोचते हो? सोचो जंगल के फूलों की वे कैसे खिलते हैं। वे न कोई काम करते हैं और न अपने लिए कपड़े बनाते हैं। 
29 मैं तुमसे कहता हूँ कि सुलेमान भी अपने सारे वैभव के साथ उनमें से किसी एक के समान भी नहीं सज सका। 
30 इसलिये जब जंगली पौधों को जो आज जीवित हैं पर जिन्हें कल ही भाड़ में झोंक दिया जाना है, परमेश्वर ऐसे वस्त्र पहनाता है तो अरे ओ कम विश्वास रखने वालों, क्या वह तुम्हें और अधिक वस्त्र नहीं पहनायेगा?
31 “इसलिये चिंता करते हुए यह मत कहो कि ‘हम क्या खायेंगे या हम क्या पीयेंगे या क्या पहनेंगे?’ 
32 विधर्मी लोग इन सब वस्तुओं के पीछे दौड़ते रहते हैं किन्तु स्वर्ग धाम में रहने वाला तुम्हारा पिता जानता है कि तुम्हें इन सब वस्तुओं की आवश्यकता है। 
33 इसलिये सबसे पहले परमेश्वर के राज्य और तुमसे जो धर्म भावना वह चाहता है, उसकी चिंता करो। तो ये सब वस्तुएँ तुम्हें दे दी जायेंगी। 
34 कल की चिंता मत करो, क्योंकि कल की तो अपनी और चिंताएँ होंगी। हर दिन की अपनी ही परेशानियाँ होती हैं।

यीशु का उपदेश (बाइबिल)

 यीशु का उपदेश

5
1 यीशु ने जब यह बड़ी भीड़ देखी, तो वह एक पहाड़ पर चला गया। वहाँ वह बैठ गया और उसके अनुयायी उसके पास आ गये। 
2 तब यीशु ने उन्हें उपदेश देते हुए कहा:
3 “धन्य हैं वे जो हृदय से दीन हैं,
स्वर्ग का राज्य उनके लिए है।
4 धन्य हैं वे जो शोक करते हैं,
क्योंकि परमेश्वर उन्हें सांतवन देता है
5 धन्य हैं वे जो नम्र हैं
क्योंकि यह पृथ्वी उन्हीं की है।
6 धन्य हैं वे जो नीति के प्रति भूखे और प्यासे रहते हैं!
क्योंकि परमेश्वर उन्हें संतोष देगा, तृप्ति देगा।
7 धन्य हैं वे जो दयालु हैं
क्योंकि उन पर दया गगन से बरसेगी।
8 धन्य हैं वे जो हृदय के शुद्ध हैं
क्योंकि वे परमेश्वर के दर्शन करेंगे।
9 धन्य हैं वे जो शान्ति के काम करते हैं।
क्योंकि वे परमेश्वर के पुत्र कहलायेंगे।
10 धन्य हैं वे जो नीति के हित में यातनाएँ भोगते हैं।
स्वर्ग का राज्य उनके लिये ही है।
11 “और तुम भी धन्य हो क्योंकि जब लोग तुम्हारा अपमान करें, तुम्हें यातनाएँ दें, और मेरे लिये तुम्हारे विरोध में तरह तरह की झूठी बातें कहें, बस इसलिये कि तुम मेरे अनुयायी हो, 
12 तब तुम प्रसन्न रहना, आनन्द से रहना, क्योंकि स्वर्ग में तुम्हें इसका प्रतिफल मिलेगा। यह वैसा ही है जैसे तुमसे पहले के भविष्यवक्ताओं को लोगों ने सताया था।
तुम नमक के समान हो: तुम प्रकाश के समान हो
13 “तुम समूची मानवता के लिये नमक हो। किन्तु यदि नमक ही बेस्वाद हो जाये तो उसे फिर नमकीन नहीं बनाया जा सकता है। वह फिर किसी काम का नहीं रहेगा। केवल इसके, कि उसे बाहर लोगों की ठोकरों में फेंक दिया जाये।
14 “तुम जगत के लिये प्रकाश हो। एक ऐसा नगर जो पहाड़ की चोटी पर बसा है, छिपाये नहीं छिपाया जा सकता। 
15 लोग दीया जलाकर किसी बाल्टी के नीचे उसे नहीं रखते बल्कि उसे दीवट पर रखा जाता है और वह घर के सब लोगों को प्रकाश देता है। 
16 लोगों के सामने तुम्हारा प्रकाश ऐसे चमके कि वे तुम्हारे अच्छे कामों को देखें और स्वर्ग में स्थित तुम्हारे परम पिता की महिमा का बखान करें।
यीशु और यहूदी धर्म-नियम
17 “यह मत सोचो कि मैं मूसा के धर्म-नियम या भविष्यवक्ताओं के लिखे को नष्ट करने आया हूँ। मैं उन्हें नष्ट करने नहीं बल्कि उन्हें पूर्ण करने आया हूँ। 
18 मैं तुम से सत्य कहता हूँ कि जब तक धरती और आकाश समाप्त नहीं हो जाते, मूसा की व्यवस्था का एक एक शब्द और एक एक अक्षर बना रहेगा, वह तब तक बना रहेगा जब तक वह पूरा नहीं हो लेता।
19 “इसलिये जो इन आदेशों में से किसी छोटे से छोटे को भी तोड़ता है और लोगों को भी वैसा ही करना सिखाता है, वह स्वर्ग के राज्य में कोई महत्व नहीं पायेगा। किन्तु जो उन पर चलता है और दूसरों को उन पर चलने का उपदेश देता है, वह स्वर्ग के राज्य में महान समझा जायेगा। 
20 मैं तुमसे सत्य कहता हूँ कि जब तक तुम व्यवस्था के उपदेशकों और फरीसियों से धर्म के आचरण में आगे न निकल जाओ, तुम स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं पाओगे।
क्रोध
21 “तुम जानते हो कि हमारे पूर्वजों से कहा गया था ‘हत्या मत करोa और यदि कोई हत्या करता है तो उसे अदालत में उसका जवाब देना होगा।’ 
22 किन्तु मैं तुमसे कहता हूँ कि जो व्यक्ति अपने भाई पर क्रोध करता है, उसे भी अदालत में इसके लिये उत्तर देना होगा और जो कोई अपने भाई का अपमान करेगा उसे सर्वोच्च संघ के सामने जवाब देना होगा और यदि कोई अपने किसी बन्धु से कहे ‘अरे असभ्य, मूर्ख।’ तो नरक की आग के बीच उस पर इसकी जवाब देही होगी।
23 “इसलिये यदि तू वेदी पर अपनी भेंट चढ़ा रहा है और वहाँ तुझे याद आये कि तेरे भाई के मन में तेरे लिए कोई विरोध है 
24 तो तू उपासना की भेंट को वहीं छोड़ दे और पहले जा कर अपने उस बन्धु से सुलह कर। और फिर आकर भेंट चढ़ा।
25 “तेरा शत्रु तुझे न्यायालय में ले जाता हुआ जब रास्ते में ही हो, तू झटपट उसे अपना मित्र बना ले कहीं वह तुझे न्यायी को न सौंप दे और फिर न्यायी सिपाही को, जो तुझे जेल में डाल देगा। 
26 मैं तुझे सत्य बताता हूँ तू जेल से तब तक नहीं छूट पायेगा जब तक तू पाई-पाई न चुका दे।
व्यभिचार
27 “तुम जानते हो कि यह कहा गया है, ‘व्यभिचार मत करो।’b
28 किन्तु मैं तुमसे कहता हूँ कि यदि कोई किसी स्त्री को वासना की आँख से देखता है, तो वह अपने मन में पहले ही उसके साथ व्यभिचार कर चुका है। 
29 इसलिये यदि तेरी दाहिनी आँख तुझ से पाप करवाये तो उसे निकाल कर फेंक दे। क्योंकि तेरे लिये यह अच्छा है कि तेरे शरीर का कोई एक अंग नष्ट हो जाये बजाय इसके कि तेरा सारा शरीर ही नरक में डाल दिया जाये। 
30 और यदि तेरा दाहिना हाथ तुझ से पाप करवाये तो उसे काट कर फेंक दे। क्योंकि तेरे लिये यह अच्छा है कि तेरे शरीर का एक अंग नष्ट हो जाये बजाय इसके कि तेरा सम्पूर्ण शरीर ही नरक में चला जाये।
तलाक
31 “कहा गया है, ‘जब कोई अपनी पत्नी को तलाक देता है तो उसे अपनी पत्नी को लिखित रूप में तलाक देना चाहिये।’c 
32 किन्तु मैं तुमसे कहता हूँ कि हर वह व्यक्ति जो अपनी पत्नी को तलाक देता है, यदि उसने यह तलाक उसके व्यभिचारी आचरण के कारण नहीं दिया है तो जब वह दूसरा विवाह करती है, तो मानो वह व्यक्ति ही उससे व्यभिचार करवाता है। और जो कोई उस छोड़ी हुई स्त्री से विवाह रचाता है तो वह भी व्यभिचार करता है।
शपथ
33 “तुमने यह भी सुना है कि हमारे पूर्वजों से कहा गया था, ‘तू शपथ मत तोड़ बल्कि प्रभु से की गयी प्रतिज्ञाओं को पूरा कर।’ 
34 किन्तु मैं तुझसे कहता हूँ कि शपथ ले ही मत। स्वर्ग की शपथ मत ले क्योंकि वह परमेश्वर का सिंहासन है। 
35 धरती की शपथ मत ले क्योंकि यह उसकी पाँव की चौकी है। यरूशलेम की शपथ मत ले क्योंकि यह महा सम्राट का नगर हैं। 
36 अपने सिर की शपथ भी मत ले क्योंकि तू किसी एक बाल तक को सफेद या काला नहीं कर सकता है। 
37 यदि तू ‘हाँ’ चाहता है तो केवल ‘हाँ’ कह और ‘ना’ चाहता है तो केवल ‘ना’ क्योंकि इससे अधिक जो कुछ है वह शैतान से है।
बदले की भावना मत रख
38 “तुमने सुना है: कहा गया है, ‘आँख के बदले आँख और दाँत के बदले दाँत।’d 
39 किन्तु मैं तुझ से कहता हूँ कि किसी बुरे व्यक्ति का भी विरोध मत कर। बल्कि यदि कोई तेरे दाहिने गाल पर थप्पड़ मारे तो दूसरा गाल भी उसकी तरफ़ कर दे। 
40 यदि कोई तुझ पर मुकद्दमा चला कर तेरा कुर्ता भी उतरवाना चाहे तो तू उसे अपना चोगा तक दे दे। 
41 यदि कोई तुझे एक मील चलाए तो तू उसके साथ दो मील चला जा। 
42 यदि कोई तुझसे कुछ माँगे तो उसे वह दे दे। जो तुझसे उधार लेना चाहे, उसे मना मत कर।
सबसे प्रेम रखो
43 “तुमने सुना है: कहा गया है ‘तू अपने पड़ौसी से प्रेम करe और शत्रु से घृणा कर।’ 
44 किन्तु मैं कहता हूँ अपने शत्रुओं से भी प्यार करो। जो तुम्हें यातनाएँ देते हैं, उनके लिये भी प्रार्थना करो। 
45 ताकि तुम स्वर्ग में रहने वाले अपने पिता की सिद्ध संतान बन सको। क्योंकि वह बुरों और भलों सब पर सूर्य का प्रकाश चमकाता है। पापियों और धर्मियों, सब पर वर्षा कराता है। 
46 यह मैं इसलिये कहता हूँ कि यदि तू उन्हीं से प्रेम करेगा जो तुझसे प्रेम करते हैं तो तुझे क्या फल मिलेगा। क्या ऐसा तो कर वसूल करने वाले भी नहीं करते? 
47 यदि तू अपने भाई बंदों का ही स्वागत करेगा तो तू औरों से अधिक क्या कर रहा है? क्या ऐसा तो विधर्मी भी नहीं करते? 
48 इसलिये परिपूर्ण बनो, वैसे ही जैसे तुम्हारा स्वर्ग-पिता परिपूर्ण है।

आज की वो सुकून पल

मैं एक विद्यार्थी हूं। आज मैं सुबह 5 बजे उठा , और नहा धोकर तैयार होकर अपना गृहकार्य किया । जैसे ही गृहकार्य खत्म किया , वैसे ही मेरे पापा न...