चंद्रवंश से कुरुवंश तक उत्पत्ती
पुराणों के अनुसार ब्रह्मा जी से अत्रि , अत्रि से चंद्रमा, चंद्रमा से बुध और बुध से इलानन्दन पुरुरवा का जन्म हुआ। पुरुरवा से आयु , आयु से राजा नहुष और नहुष से ययाति का जन्म हुआ। ययाति से पुरु हुए। पुरु वंश भरत और भरत के कुल में राजा कुरु हुए। कुरु के वंश में शांतनु का जन्म हुआ। शांतनु से गंगा नंदन भीष्म उत्पन्न हुए। उनके दो भाई और थे। चित्रांगद और विचित्रवीर्य। ये शांतनु से सत्यवती के गर्भ से उत्पन्न हुए। शांतनु के स्वर्गलोक चले जाने के कारण भीष्म ने अविवाहित रहकर अपने भाई विचित्रवीर्य के राज्य का पालन किया। भीष्म महाभारत के प्रमुख पात्रों में से एक है। अपने पिता को दिये गये वचन के कारण इन्होंने आजीवन ब्रम्हचर्य का व्रत लिया था। इन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान भी प्राप्त था।
एक बार हस्तिनापुर नरेश दुष्यंत आखेट खेलने वन में गये। जिस वन में शिकार करने के लिए गए थे। उसी वन में ही कण्व ऋषि का आश्रम था। कण्व ऋषि के दर्शन करने के लिए महराज दुष्यंत उनके आश्रम पहुंचे। पुकार लगाने पर एक अति लावण्य मत कन्या ने आश्रम से निकलकर कहा , हे राजन्! महर्षि तो तीर्थ यात्रा में गये हैं। किंतु आपका इस आश्रम में स्वागत है। उस कन्या को देखकर महराज दुष्यंत ने पूछा 'बालिके'! आप कौन है? बालिका ने कहा , मेरा नाम शकुंतला है। उस कन्या की बात को सुनकर महाराज दुष्यंत आश्चर्यजनक होकर बोले, " महर्षि तो आजन्म ब्रम्हचारी है, फिर आप उनकी पुत्री कैसे हुई।" उनके इस प्रश्न के उत्तर में शकुंतला ने कहा , "वास्तव में मेरे माता-पिता मेनका और विश्वामित्र है। मेरी माता ने मुझे मेरे जन्म होते ही छोड़ दिया था। जहां पर शकुंत पक्षी ने मेरी रक्षा की। इसलिए मेरा नाम क्ष शकुंतला पड़ा। उसके बाद कण्व ऋषि की दृष्टि मुझ पर पड़ी। और वे मुझे अपने आश्रम में लेकर आते। उन्होंने ने ही मेरा भरण पोषण किया जन्म देने वाला, पोषण करने वाला तथा अन्न देने वाला । ये तीनों ही पिता कहे जाते हैं। इस तरह कण्व ऋषि मेरे पिता हुए।
शकुंतला का विवाह
शकुंतला के वचनों को सुनकर महाराज दुष्यंत ने कहा हे शकुंतले! तुम क्षत्रिय कन्या हो। तुम्हारे सौंदर्य को देखकर मैं अपना हृदय तुम्हें अर्पित कर चुका हूं। यदि तुम्हें किसी भी प्रकार की आपत्ति नहीं है तो मैं तुमसे विवाह करना चाहता हूं। शकुंतला भी महराज दुष्यंत पर आकर्षित हो चुकी थी। अतः उसने अपनी पत्नी स्वकृति प्रदान कर दी। दोनों ने गंधर्व विवाह कर लिया। कुछ काल महराज दुष्यंत ने शकुंतला के साथ विहार करते हुए वन में व्यतीत कर रहे थे। फिर एक दिन वे शकुंतला से बोले हे प्रियतमे! मुझे अब राज्यकार्य देखने के लिए हस्तिनापुर जाना होगा। महर्षि कण्व के तीर्थ यात्रा से लौट आने पर मैं तुम्हें यहां से विदा कर के राजभवन ले जाऊंगा। इतना कहकर महराज ने शकुंतला को प्रेम के प्रतीक के रूप में अपनी स्वर्ण मुद्रिका दी। और हस्तिनापुर चले गए।
दुर्वासा ऋषि का अपमान
एक दिन उसके आश्रम में दुर्वासा ऋषि पधारे। महराज दुष्यंत के विरह में लीन के कारण शकुंतला को उनके आगमन का ज्ञान भी नहीं हुआ। और उसने दुर्वासा ऋषि का यथोचित स्वागत सत्कार नहीं किया। दुर्वासा ऋषि ने इसे अपना अपमान समझा । और क्रोधित हो गए, बोले- मैं तुम्हें श्राप देता हूं कि तू जिस किसी का ध्यान में लीन होकर तूने मेरा निरादर किया है, वह तुझे भूल जायेगा। दुर्वासा ऋषि के श्राप को सुनकर शकुंतला का ध्यान टूटा। और वह उसके चरणों में गिरकर क्षमा - प्रार्थना की। शकुंतला के क्षमा - प्रार्थना। से द्रवित होकर दुर्वासा ऋषि ने कहा। " अच्छा तेरे पास उसका कोई प्रेम चिन्ह होगा। तो उस चिन्ह को देख उसे तेरी स्मृति हो आयेगी।
प्रेम चिन्ह
महराज दुष्यंत के सहवास से शकुंतला गर्भवती हो गई। कुछ काल पश्चात कण्व ऋषि के तीर्थ यात्रा से लौटे तब शकुंतला ने उन्हें महराज दुष्यंत के बारे में बताया। इस पर महर्षि कण्व ने कहा ," पुत्री"
विवाहित कन्या का पिता के घर में रहना उचित नहीं है। इतना कहकर महर्षि कण्व ने शकुंतला को अपने शिष्यों के साथ हस्तिनापुर भिजवा दिया। मार्ग में एक सरोवर में आचमन करते समय महराज दुष्यंत की दी हुई शकुंतला की अंगूठी , जो कि प्रेम चिन्ह थी। सरोवर में गिर गई। उस अंगूठी को एक मछली निगल गई। महराज दुष्यंत के पास पहुंचकर कण्व ऋषि के शिष्यों ने शकुंतला को उनके सामने खड़े कर के कहा, महराज शकुंतला आपकी पत्नी है , इसे आप स्वीकार करें। महराज तो दुर्वासा ऋषि के श्राप से शकुंतला को भूल गया था। अतः उसने शकुंतला स्वीकार नहीं किया। और उस पर कुलटा होने का लांक्षन लगाया। शकुंतला के अपमान होते ही आकाश में जोरों की बिजली कड़क उठी। और सबके सामने उसकी माता मेनका उसे उठा ले गई।
जिस मछली ने शकुंतला की अंगूठी को निगल लिया था। एक दिन वह एक मछुआरे के जाल में आ फंसी।

जब मछुआरे ने उसको काटा तो उसके पेट में एक अंगूठी मिली। मछुआरे ने उस अंगूठी को महराज दुष्यंत को भेंट स्वरूप प्रदान कर दिया। अंगूठी को देखते ही दुष्यंत को शकुंतला का स्मरण हो आया। और वे अपने कृत्य पर पश्चताप करने लगे। महराज ने शकुंतला को बहुत ढुंढ़वाया। परंतु कुछ पता नहीं चला। कुछ दिनों बाद देवराज इन्द्र के निमंत्रण पाकर देवासुर संग्राम में उसकी सहायता करने के लिए गए। संग्राम विजय प्राप्त करने के पश्चात जब वो आकाश मार्ग से हस्तिनापुर लौट रहे थे, तो मार्ग में उन्हें कश्यप ऋषि का आश्रम दृष्टिगत हुआ। उनके दर्शनों के लिए वे वहां रुक गये। आश्रम में एक सुंदर बालक एक भयंकर सिंह के साथ खेल रहा था। मेनका ने शकुंतला को कश्यप ऋषि के पास लाकर छोड़ा था। तथा वह बालक
शकुंतला का ही पुत्र था। उस बालक को देखकर महराज के हृदय में प्रेम की भावना उमड़ आयी। वे उसे गोद में उठाने के लिए आगे बढ़े शकुंतला की सखी चिल्ला उठी, हे भद्र पुरुष! आप इस बालक को न छुएं। अन्यथा उसकी भुजा में बंधा काला डोर सांप बनकर आपको डस लेगा। यह सुनकर भी दुष्यंत स्वयं न रोक सके। और बालक को अपने गोद में उठा लिया। सखी को ज्ञात था कि जब भी उसके पिता उसे गोद में लें , तो डोर पृथ्वी में गिर जायेगा। सखी प्रसन्न होकर समस्त वृतांत शकुंतला को सुनाई। शकुंतला महराज दुष्यंत के पास आयी। महराज ने शकुंतला को पहचान लिया। उन्होंने अपने कृत्य के लिए शकुंतला क्षमा मांगी। और कश्यप ऋषि की आज्ञा लेकर उसे उसके पुत्र सहित हस्तिनापुर ले गये। महराज दुष्यंत और उसके पुत्र का नाम भरत था। बाद में वे भरत महान प्रतापी सम्राट बनें।