महात्मा गांधी का बचपन
बरसात का दिन था। आसमान में बादल र
ह - रहकर घिर आते थे। एक बालक उन्हीं की तरफ देख रहा था। देखते - देखते एकदम चिल्ला उठा, "मॉं, मॉं, देखो, सूरज निकल आया।अब तू पारणा कर लें।" मॉं ज़र्रों ही बाहर आई, सूरज भगवान बादल की ओट में छिप गए। "कोई बात नहीं मनु, भगवान की मर्जी नहीं है कि आज पारणा करुॅं, भोजन करुॅं।"
मनु की माॅं ने चौमासे में सूर्यदर्शन होने पर ही भोजन ग्रहण करने का व्रत लिया था। आज सूर्य के दर्शन नहीं हुए तो उन्होंने भोजन नहीं किया। बरसात के दिनों में कई बार सूरज। भगवान मनु की माॅं को भूखा रखते थे। सूरज के न दिखने पर माॅं ने जब भोजन नहीं किया, तब मनु को बहुत बुरा लगा। उसने माॅं से पूछा, "माॅं, तू ऐसे कठिन व्रत क्यों करती है?" "बेटा, जब तू बड़ा हो जाएगा तब इसका अर्थ समझ जायेगा। अब चल मंदिर चलें, शिव के दर्शन करें। वहाॅं पुजारी बहुत अच्छे भजन गाते हैं।"
"मां, तू शिवालय जाती है, शिव का दर्शन करती है, बालकृष्ण हवेली जाती है, कृष्ण के दर्शन करती है, राम मंदिर जाती है, राम के दर्शन करती है। बापू भी सब मंदिरों में जाते हैं, लेकिन वे रामायण बड़े प्रेम से सुनते हैं। जब ब्राम्हण दोहे - चौपाई गाता है, तब मुझे बहुत अच्छा लगता है। और सुन, धाय कहती है कि तू राम नाम लिया कर तो तूझे भूत - प्रेत का क्या, किसी का भी डर नहीं सतायेगा, और बापू, 'हरे राम हरे कृष्ण' का कीर्तन बड़े प्रेम से सुनते हैं। तो तू बता, माॅं, इन तीनों में कौन बड़ा है?" "बेटा, ये तीनों बड़े हैं, तीनों ही एक हैं। भगवान के ही नाम है। देख ना, मैं तुझे कभी मनु कहती हूं ,और कभी मोन्या भी कह देती हूं ।अरे, जब तू बड़ा हो जाएगा, तब सब समझने लगेगा।"
ऊपर बात करने वाले मां-बेटे पुतलीबाई और मोहनदास थे। मोहनदास ही बड़े होने पर मोहनदास करमचंद गांधी कहलाए। और देशवासियों की सेवा के कारण 'महात्मा गांधी' के नाम से प्रसिद्ध हुए। मोहन का जन्म आश्विन बदी १२, विक्रम संवत् १९२६ अर्थात् 2 अक्टूबर 1869 ईसवी को काठियावाड़ (सौराष्ट्र) के छोटे शहर पोरबंदर में हुआ था। इनके पिता करमचंद गांधी वैश्य थे। वे वैश्णव धर्म को मानने वाले सत्यभाषी, निडर एवं न्यायप्रिय थे। अपनी पत्नी पुतलीबाई के समान ही धर्म के कार्यो में श्रद्धा रखते थे। पढ़ें - लिखे तो कम थे। पोरबंदर अंग्रेजी राज्य की छत्रछाया में एक छोटी सी रियासत थी, उसी के ये दीवान थे। राजकोट और बीकानेर रियासत में भी इन्होंने इसी पद पर कार्य किया था। रियासतों में अंग्रेजी सरकार अपने प्रतिनिधि रखती थी। इन्हें पाॅलिटिकल एजेंट कहते थे। ये राजाओं और उनकी प्रजा की हलचलों पर निगरानी रखा करते थे।एक बार राजकोट के असिस्टेंट पाॅलिटिकल एजेंट ने वहाॅं के राजा ( जो ठाकुर साहेब कहलाते थे।) शान के खिलाफ कुछ अंड- बंड बातें कह डाली। करमचंद गांधी को उस समय अंग्रेज की अशिष्टता सहन नहीं हुई। उन्होंने तुरंत उसका विरोध किया। गोरे साहब को एक काले दीवान का विरोध अच्छा नहीं लगा। उसने उनसे क्षमा मांगने की जिद की। तब उन्होंने इंकार कर दिया, तब उन्हें डराने - धमकाने लगा। कुछ देर के लिए उसने उन्हें हवालात में बंद रखा। परंतु करमचंद मामूली आदमी नहीं थे। जो उस गोरे की घुड़की से डर जाते । उन्होंने माफी मांगने से बार - बार इंकार किया । अंत में गोरे को झुकना पड़ा , और उन्हें छोड़ दिया गया । करमचंद को उनके सगे - संबंधी और मित्र काबा गांधी भी कहते थे । स्पष्टवादी होने के साथ - साथ वे बड़े क्रोधी और हठी भी थे ।अपनी आज्ञा का उल्लंघन कभी बर्दाश्त नहीं करते थे ।अपने निर्णय पर दृढ़ रहने की इच्छा मोहन को अपने पिता से ही मिली थी ।
शिष्टाचार में भूल के कारण प्रायश्चित
एक बार घर में भोजन पर कई लोग निमंत्रित हुए। अतिथियों में मोहन ने अपने मित्र को भी निमंत्रण भेजा था। पर किसी कारण से वह भोजन में शामिल नहीं किया जा सका। भोजन में मुख्य रूप से आम खिलाया जाने वाला था।मित्र को वह आम नहीं खिला सका, इससे मोहन को बड़ा दुःख हुआ। इसलिए उसने मौसम भर आम नहीं खाएं, यद्यपि आम उसका प्रिय फल था। शिष्टाचार के पालन में जो गलती हुई थी। उससे वह फिर न हो, इस विचार से उसने यह संकल्प किया था।स्कूल की पढ़ाई
मोहन का बचपन पोरबंदर में बिता। वहीं 'लूल्या मास्टर' की प्रायमरी शाला में उसकी पढ़ाई प्रारंभ हुई। वह शाला उनके घर के पास थी। मास्टर साहब लंगड़े थे। इसलिए उन्हें लोग 'लूल्या मास्टर' कहते थे। जब मोहन के पिता पोरबंदर से राजकोट रियासत के दीवान बनकर गये। तब उनके साथ मोहन भी गया। उस समय उसकी आयु सात वर्ष की थी। बारह वर्ष की आयु तक उसने राजकोट में अपनी पढ़ाई की। इस बीच उसने अपने गुरुओं से एक बार भी झूठ नहीं बोला। लज्जालु स्वभाव होने के कारण वह लड़कों से बात कम करता था। उसे डर लगा रहता था कि कहीं कोई मेरी किसी बात पर खिल्ली न उड़ाने लगे।नकल के इशारे की उपेक्षा
हाई स्कूल के पहले वर्ष की परीक्षा के समय की एक घटना है। अंग्रेज इंस्पेक्टर परीक्षा लेने आया। उसने मोहन की कक्षा के विद्यार्थियों को पांच अंग्रेजी शब्द लिखने को कहा, उनमें एक शब्द 'केटल' था। मोहन ने इस शब्द के हिज्जे गलत लिखे थे। पास ही खड़े शिक्षक ने इशारे से उसे चेताया , परंतु उसके दिमाग में यह बात नहीं आई , कि मास्टर साहब सामने लड़के की स्लेट देखकर हिज्जे ठीक करने का इशारा कर रहे हैं। मोहन बच्चा ही था। फिर भी वह समझता था। कि मास्टर इसलिए वहां हैं कि कोई लड़का दूसरे की नकल न कर पाए। मास्टर मोहन की ईमानदारी देखकर बड़े प्रसन्न हुए, और अपने कार्य से मन ही मन लज्जित हुए।
पितृ - भक्ति और सत्यनिष्ठा की प्रेरणा
मोहन पाठशाला के पुस्तकों के अलावा दूसरी पुस्तकें पढ़ने में रुचि भी लेता था। एक दिन उसने पिता जी की 'श्रवण पितृ भक्ति नाटक' नामक पुस्तक पढ़ डाली। उस पुस्तक का उसके मन पर बड़ा असर पड़ा। श्रवण अपने माता-पिता को कांवर में बैठाकर यात्रा कराने ले जा रहा था। उसका मन श्रवण के सामन बनने के लिए ललक उठा।इसी बीच राजकोट में एक नाटक मंडली आई जो हरिश्चंद्र नाटक खेलती थी। मोहन ने अपने पिता से नाटक देखने की अनुमति प्राप्त कर उस नाटक को देखा। और उससे वह बहुत प्रभावित हुआ। मन ही मन हरिश्चंद्र नाटक के दृश्यों को देखता और सत्य पालन के कारण हरिश्चंद्र को जो -जो कष्ट भोगने पड़े, उनकी कल्पना कर घण्टों रोया करता था। सत्य का पालन करना मनुष्य का धर्म है। इससे भगवान भी प्रसन्न रहते हैं, ऐसे विचार उसके मन में उठने लगे। इस नाटक ने मोहन के जीवन में सत्यनिष्ठा का अंकुर जमा दिया।
नियम भंग से दुखी
मोहन को सबसे बड़ा दुःख तब होता था। जब उससे कोई नियम भंग हो जाता था। स्कूल में हेडमास्टर ने सबके लिए खेल अनिवार्य कर रखा था। मोहन की खेलों में रुचि नहीं थी। फिर भी वह खेल के समय उपस्थित रहता था। एक बार वह उपस्थित न रह सका जिससे हेडमास्टर ने उसकी पिटाई की। पिटाई से तो उसे दुःख नहीं हुआ, दुःख इस बात से हुआ कि उसने पिटाई का काम किया, स्कूल के नियम का पालन नहीं किया।ऊका मेहतर से सुहानुभूति
मेहतरों को लोग क्यों नहीं छूते, यह बात मोहन को समझ में नहीं आती थी। उसके घर ऊका नाम मेहतर सफाई करने आया करता था। मां जब उसे छूने से मना करतीं, तब वह कहता, "अपने धर्म की पोथियों में शूद्रों को न छूनेकी बात कहाॅं लिखी है? रामायण में लिखा है कि ऋषि वशिष्ठ ने केंवट को अपनी छाती से लगाया था। और राम ने शबरी के झूठे बेर खाए थे। तो फिर तु मुझे ऊका से दूर रहने के लिए क्यों कहती है?" मां बेटे की बुध्दि की मन ही मन प्रशंसा करती थी, पर उसकी शंका दूर नहीं कर पाती थी। विवाह
उस समय छोटे बच्चों का विवाह हो जाता था। मोहन जब १३ वर्ष का हुआ था, तभी उसका विवाह कस्तूरबा से हो गया था। मोहन और कस्तूरबा एक ही उम्र होने के कारण हमजोली की भाॅंति साथ- साथ खेलते थे। परिवार के धार्मिक वातावरण में मोहन और कस्तूरबा के महान संस्कारों का निर्माण हो रहा था।माता - पिता का प्रभाव
मोहन के माता-पिता धार्मिक , सत्यवादी और अपनी बात के धनी थे। पिता जिसे वचन देते, उसे अवश्य पूरा करते, जो प्रतिज्ञा करते ,उसको अवश्य निभाते। पिता शिव मंदिर जाते थे, राम मंदिर और कृष्ण मंदिर में भी जाते थे। उनके साथ उनका लाड़ला मोन्या भी जाता था। मंदिर का पुजारी कभी नरसी मेहता के भजन , कभी मीराबाई और कभी तुलसी के पद गाता था। मोन्या उन्हें बड़े चाव से सुनता था। जब पुजारी नरसी मेहता का 'वैष्णव जन तो कहिये जे'पीड़ पराई जाणे रे' भजन मस्ती में गाता तो वह भी मस्ती में गुनगुनाने लगता। उसके बापू दीवान थे। इसलिए सभी धर्म के प्रतिष्ठित लोग उनके पास आते थे, और धार्मिक चर्चा करते थे। मोहन उन्हें सुनता रहता था। इस तरह माता - पिता की धार्मिक उदारता का उस पर प्रभाव पड़ना स्वभाविक था।
काठियावाड़ की रियासतें पिछड़ी हुई थीं। लोग सीधे - सादे ढंग से रहते थे। मोहन दीवान का लड़का था।वह कोट , धोती , स्लीपर और जरीदार टोपी पहनता था।
शाला में मोहन एक संकोचशील बालक था। जो अन्य बालकों से कुछ अलग-अलग सा रहता था। उसने सन् १८८७ में मैट्रिक की परीक्षा पास कर ली। उसके बाद भाव नगर के सामलदास कॉलेज में नाम दिखाया। शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी होने से वहां मोहन को पढ़ने में कुछ कठिनाई का अनुभव होता था। यहीं कारण था कि उसका मन कॉलेज की पढ़ाई से उचट गया और वह थोड़े दिनों बाद ही पढ़ाई छोड़कर घर लौट आया। अब प्रश्न उठा कि अब क्या करें?
विलायत जाने की तैयारी
भावजी दवे मोहन के पिता के घनिष्ठ मित्र थे। परिवार वालों ने उन्हें बुलाया। आते ही उन्होंने मोहन से पूछा, "बता, तू क्या पढ़ेगा?" मोहन ने कहा , मैं डॉक्टरी पढ़ना चाहता हूं।" "अरे! तू मुर्दे कैसे चीरेगा! न -न , यह काम तुझसे नहीं होगा। देख, हम चाहते हैं, तू अपने बापू की तरह पोरबंदर या राजकोट का दीवान बने। इसके लिए कानून का ज्ञान होना बहुत जरूरी है। अच्छा बोल, कानून पढ़ने विलायत जायेगा ?" अंधा क्या चाहे, दो आंखें। मोहन ने तुरंत कह दिया , "काका , मैं विलायत जाऊंगा। मां फिर भी झिझकती रही। उन्होंने कहा - "मैं , जरा बेचर जी स्वामी से पूछ लूॅं। अगर उन्होंने दवे भाई की तरह राय दी तो मैं जाने दूंगी।" बेचर जी स्वामी जैन साधु थे। गांधी परिवार के बड़े हितैषी थे। उनसे जब पूछा गया, तब उन्होंने मोहन की मां को समझाया- "पुतलीबाई, मोन्या को विलायत भेजने से मत झिझको, लड़का होनहार है, शीलवान है। तुम्हारी बात मानेगा। बिगड़ेगा नहीं, जाने दो।" जैन साधु की सलाह मानकर पुतलीबाई ने अपने मन को समझा लिया और अपनी पुतली में। बसने वाले मोहन को विलायत जाने की अनुमति दे दी। मोहन के प्रस्थान का दिन आ गया। राजकोट के हाईस्कूलों के शिक्षकों और विद्यार्थियों ने उसे मान पत्र देने के लिए सभा बुलाई और उनके गुणों की खूब प्रशंसा की। अंत में जब मोहन उत्तर देने के लिए खड़ा हुआ तो उसके पैर डगमगाने लगे, हाथ काॅंपने लगे। कागज में जो लिखकर ले गया था, उसी बड़ी कठिनाई से अटक-अटककर पढ़ सका। उसका सार यही था कि मेरे भाई मेरे तरह विलायत जाएंगे और लौटकर देश सेवा का काम कर नाम कमाएंगे। ऐसा लगा , मानो स्वयं मोहन अपना भविष्य बोल रहा हो।
अब घर में मां से बिदा लेने की दुखद घड़ी आई। मां बेटे बड़ी देर तक लिपटे रोते रहे। अंत में शांत हो मां ने बड़े कष्ट से आशीर्वाद दे, बिदा की। फिर पत्नि कस्तूरबा के पास गए। दोनों कुछ नहीं बोले। मोहन कुछ क्षण खड़े होकर विदा ली। वे उससे कैसे पूछते,"जाऊं?"
और वह कैसे कहती , मत जाओ।"
राजकोट से अपने बड़े भाई के साथ मोहन मुंबई (बंबई) पहुंचा। वहां जाति मुखिया ने उसे बुलाकर डाॅंटा क्यों कि मोड़ वैश्य। जाति में उस समय तक कोई विलायत नहीं गया था। उसने जाति सभा बुलाई और मोहन को उसमें उपस्थित रहने को कहा। जैसी आशा थी, सभा में कई लोगों ने विरोध किया। और कहा कि यदि करमचंद का लड़का विदेश जाता है, तो उसे जाति से निकाल देना चाहिए। मोहन ने दृढ़ता से कहा, "मैंने विलायत जाना तय कर लिया है। मैं अपना निश्चय नहीं बदल सकता । आप लोग खुशी से मेरा बहिष्कार कर सकते हैं।
मोहन की विलायत यात्रा के मार्ग में एक और कठिनाई थी। विलायत में रहने का खर्च कहां से आयेगा? पिता ने धन संग्रह नहीं किया था। जाति वालों की सहायता से मिलने का तो प्रश्न ही नहीं था। कहीं से छात्रवृत्ति मिलने की आशा नहीं थी। मोहन को चिंतित देखकर उसके बड़े भाई लक्ष्मीदास ने विलायत में रहने का सारा खर्च अपने ऊपर ले लिया। मोहन की चिंता दूर हो गई। उसने कुछ दिन मुंबई (बंबई) में रहकर विलायती पोशाक सिलवाई और उसे पहनना सीख लिया। सन्१८८८ की ४ सितंबर को मोहन ने अब 'एम. के.गांधी' (मोहनदास करमचंद गांधी) के रुप में जहाज के तीसरे दर्जे में लंदन की ओर प्रस्थान किया।।

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